Sunday, September 20, 2015

#तुझे #जीना #सिखा रही थी.....

#हद-ए-शहर से #निकली तो गाँव #गाँव चली,
कुछ #यादें मेरे #संग पांव पांव चली।
#सफ़र जो #धूप का किया तो #तजुर्बा हुआ,
#वो #जिंदगी ही क्या जो #छाँव छाँव चली।
#कल एक #झलक #ज़िंदगी को #देखा,
वो #राहों पे मेरी #गुनगुना रही थी,
फिर #ढूँढा उसे #इधर उधर
वो #आँख #मिचौली कर #मुस्कुरा रही थी,
एक #अरसे के #बाद आया मुझे #क़रार, वो #सहला के #मुझे #सुला रही थी
हम #दोनों क्यूँ #ख़फ़ा हैं एक दूसरे से
मैं उसे और वो मुझे #समझा रही थी,
#मैंने पूछ लिया- क्यों #इतना #दर्द दिया #कमबख़्त तूने,
वो #हँसी और #बोली-
मैं ज़िंदगी हूँ पगली
तुझे जीना सिखा रही थी।

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