Tuesday, February 9, 2016

यहीं कहीं तो था..

यहीं कहीं तो था.. अब नज़र नहीं आता,
सिर्फ ठिकाने मिलते हैं, कभी घर नहीं आता ।
कैसे बताऊँ किस मुश्किल से आ पहुंचा हूँ!
मुसाफिर के साथ चलकर सफ़र नहीं आता ।
दिल में ज़रूर सुराख़ हो गया है वगरना,
क्यों पहले की तरह अब भर नहीं आता |
दर्द की दीवारें, फर्श, दरवाज़े और छत,
खाना-ए-दिल में कुछ और नज़र नहीं आता ।
कोई तो इन्हें मेरे रंज-ओ-गम बताता है,
कोई भी हमसे मिलने बेखबर नहीं आता।
चाहे जितना भी मिले.. कम ही लगता है,
मोहब्बत को सुकुन का हुनर नहीं आता।
हर शख्स अपनी ही तलाश में गुम है,
किसी के हिस्से में हमसफ़र नहीं आता।
मेरी सहरा-ए-तन्हाई के फेले हुए वीराने,
क्या तेरी रहगुज़र में, कोई शज़र नहीं आता?
दिल डूब जाता गम के पिघलते ही ‘राहुल’,
ये अश्क़ गर इन आँखों से उतर नहीं आता।

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